– Talesmith की कविता
ढूँढता रहता हूँ आज कल उन पलों को,
जो फिर कभी न लौटने वाली हैं।
भर तो दिया है घर को चीज़ों से,
मगर कुछ तो अब भी खाली-खाली है।
वो शरारती पैर जो सारे मोहल्ले में दौड़ा करते थे,
अब बस कुछ ही फर्शों को पहचानते हैं।
घर से ऑफिस और ऑफिस से घर,
इन्हीं रास्तों को वो जानते हैं।
कभी इन कंधों पर खड़ा एक बदमाश दोस्त,
पेड़ों से चुराया करता था कैरियाँ।
उन्हीं कंधों पर आज बैठी है,
ढेर सारी ज़िम्मेदारियाँ।
जिन्हें रास नहीं आता था मेरा चिल्लाना,
कहाँ गयी वो आवाम?
मेरी आज की ख़ामोशी से शायद,
ख़ुश हैं वो तमाम।
बस खिड़कियों से आवाज़ लगाने की देरी थी,
आ जाते थे सारे मैदान में।
नाम, शक्ल-सूरत, पता, शहर,
अब तो कुछ नहीं है ध्यान में।
भर जाती थी इन चेहरों पे रौनक,
जब गर्मी की छुट्टियाँ आ जाती थी पास।
अब तो हर महीना, हर दिन एक जैसा है,
लगता नहीं कुछ भी ख़ास।
वो नदियाँ, वो हवा, वो यार, वो किस्से,
वो गलियाँ, वो आँगन, वो मासूमियत, वो हँसी,
कोई झोली में बाँधकर ले गया यूँ।
ये अकेलापन, ये सन्नाटा, ये भाग-दौड़, ये वक्त,
ये मायूसी, ये दर्द, ये आँसू, ये ख़लिश,
बदले में देकर चला गया है क्यों?
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